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सफर के बहाने

चुप्पी की पीड़ा
चुप्पी की पीड़ा
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मन की पीड़ा जब जुबां से आवाज या आंखों से पानी के रूप में बाहर नहीं आ पाती तो
वह अनुभूति घनीभूत हो शब्द का रूप ले लेती है। विषाद के वे क्षण मस्तिष्‍क
आकाश में बादलों की तरह मंडराते रहते हैं। वर्षों बाद जब कभी जीवन की तपती
दोपहरी में कुछ पल के लिए ही सही स्‍नेहिल छाया मिलती है तो ठंडक पाकर खुद ब
खुद शब्‍दों के रूप में बरसने लगते हैं। यह बरसात खुद को भी नहीं पढ़ पाने
वालों के मन के अंदर पड़े बीज को सींचने का काम करती है। इतना ही नहीं शब्‍दों
की यह बौछार मन के मैल को धोने का काम भी करती है। मेरा इरादा किसी को धो
डालना नहीं है। मैं तो बस तंद्रा की अवस्‍था से जगाने का प्रयास कर रहा हूं। वह
भी इसलिए कि आने वाला वक्‍त मुझे दोषी नहीं ठहराए। आप भी खुद पर गुस्‍सा नहीं
करें कि आप चुप क्‍यों रह गए या आपने ऐसा क्‍यों किया। मुझे तो कभी अपने किए पर
नाज होता है। कभी अपनी बेबसी पर शर्मिंदगी महसूस होती है। उस दिन यही तो हुआ
था। दिल्‍ली की ब्‍लू लाइन बस थी। मैं रोज की तरह किसी तरह उसमें धकेल दिया गया
था। बस नोएडा की ओर भागने लगी थी। अचानक उसकी गति बहुत तेज हो गई। पहले कुछ तो
समझ नहीं आया, बाद में पता चला कि आगे सरकारी बस थी जिसमें महज पंद्रह बीस
यात्री थे। मेरी बस को उससे आगे निकालना था। अगले बस स्‍टाप के कुछ पहले हमारी
बस आगे थी और सरकारी बस रुक गई थी। मेरी बस के कंडक्‍टर ने सरकारी बस के चालक
की मुठ़ठी में तीस रुपये पकड़ाए और मेरी बस आगे निकल गई। मैंने सरकारी बस चालक
को पैसे लेते खुद देखा था। पत्रकार मन को उसका भ्रष्‍टाचार नहीं भाया। अच्‍छा
नही लगते हुए भी मैं क्‍या किसी ने भी हरियाणा के उस बस कंडक्‍टर के इस कार्य
का विरोध नहीं किया। बुदिध्‍जीवी होने का यही तो लाभ है आदमी अपना दायरा बना
लेता है । वसुधैव कुटुंबकम का दायरा संकुचित होकर देश, प्रदेश, जिला, परिवार से
मैं पर आकर ठहर गया है। दिल्‍ली के संस्‍कार में तो हम शब्‍द है ही नहीं। मैं
भी दिल्‍ली का हो गया हूं, लिहाजा कंडक्‍टर के मुंह मेरी तरह का महान अकडू
पत्रकार क्‍यों लगता? ये मत कहिए कि मैं कायर था उसका विरोध करने का साहस ही
नहीं था मुझमें। बुद़िधजीवी होने का लबादा इसी वजह से तो ओढे चलता हूं। वह
दो-चार गालियां दे देता या कालर पकड़ कर बस से उतार देता तो क्‍या होता? थाने
जाता वहां बगैर पैसे दिए प्राथमिकी दर्ज नहीं होती। यदि प्राथमिकी दर्ज हो भी
जाती तो कितने बस वालों के खिलाफ? ऐसा तो अक्‍सर देखने को मिलता है। कुछ दूर
आगे जाने पर बस में आठ-दस मजदूर और बोरे की तरह ठूंसा गए थे। बस कंडक्‍टर हट़टा
कट़टा था। बोला- फटाफट दस-दस रुपये निकाल..। एक मजदूर ने कहा- सुबह पांचे
रोपेया लागा था। इतना सुनते ही चिल्‍लाया – ऐ बिहारी, बहस नहीं। निकाल दस-दस
रुपये। बस में बैठे लोग मुस्‍कुरा रहे थे। वे मजदूर पांच रुपये देने के लिए
गिड़गिड़ा रहे थे। मैं जानता था वास्‍तव में गोल चक्‍कर का किराया पांच रूपये
ही है। लोगों को हंसते देख कंडक्‍टर दस रुपये लेने के लिए दबाव डालने लगा।
बोला- ‘साले बिहारी यहां आकर दिल्‍ली में भर गए हैं। जिधर देखो गंद फैला रखे
हैं। यहां से भी भगाए जाएंगे। उसकी यह बात मेरे कानों के रास्‍ते दिल तक पहले
पहुंची या दिमाग तक कह नहीं सकता। शायद दिल तक पहले पहुंची थी तभी मैं उसका
कालर पकड़ने के लिए आगे बढ़ गया था। उसके पास पहुंचते ही दिमाग ने काम करना
शुरू कर दिया। सोचा इसके साथ मारपीट में मैं जीत नहीं सकता। वह अब भी हंसे जा
रहा था। मैं उससे इतना भर कह सका- अरे रहने दो, बेचारे लेबर हैं। वह ठहाके
लगाने लगा था। मुझे लगा वह मेरी बेबसी पर ठहाके लगा रहा है। नहीं -नहीं, वह
तपती दोपहरी में मुझे बुदि़धजीवी वाली रजाई ओढ़े चलने पर हंस रहा है। मुझे उसे
थप्‍पड़ मारना चाहिए था। मैं नहीं मार सका। मार भी देता तो क्‍या हो जाता। मैं
या मेरे जैसा कोई क्‍या आजतक राज ठाकरे को थप्‍पड़ मार पाया? नहीं न? बिहारी
विरोध के नाम पर उसकी राजनीति की दुकान चल निकली। उसका कौन क्‍या बिगाड़ सका?
दिल्‍ली में भी तो कुछ नेताओं ने परोक्ष रूप से बिहारी विरोधी कार्ड खेलने की
कोशिश की थी। खासकर सत्‍ता के शीर्ष पर बैठे उन लोगों ने जो खुद दिल्‍ली के
नहीं थे। भारी विरोध और हवा का रुख उल्‍टा देखकर खेद जता दिया था। असम में
बिहारी मजदूरों की पिछले वर्षों में जितनी हत्‍याएं हुईं मीडिया ने सिर्फ
संख्‍या गिना कर अपने दायित्‍व का निर्वाह कर दिया।
अंबाला से मुरादाबाद जाने के दौरान का वह मंजर अब भी नहीं नजरों के सामने
घुमने लगता है। रिजर्वेशन नहीं मिला था। मैं साहस जुटाकर जनरल बोगी में चढ़ गया
था। अंबाला जं: पर ही टीन वाला बक्‍सा और झोला लिए बिहार के मजदूर उस गाड़़ी पर
धक्‍का-मुक्‍की करते हुए ऐसे सवार हो रहे थे मानों जिंदगी की आखिरी लड़ाई लड़
रहे हों। बैठने की सीट पाने वाला इतना खुश हो जाता था मानो स्‍वर्ग में सीट
अपने नाम आरक्षित करा ली हो। मुझे भी बैठने की जगह मिल चुकी थी। मैं खुश था बीस
रुपये देकर कुली से सीट लुटने को नहीं कहना पड़़ा था। मैं जिस बोगी में था
उसमें नब्‍बे फीसदी मजदूर ही थे। पता चला सवारी गाड़ी से लखनऊ तक जाएंगे। उसके
बाद वहां से बिहार जाने वाली दूसरी सवारी गाड़ी से अपने घर पहुंचेंगे। इससे
किराया कम लगेगा। समय अधिक लगेगा तो कोई बात नहीं, अपने ही घर तो जाना है कौन
सा काम छूटा जा रहा है? गाड़ी चल दी। कुछ ही देर बाद नमक और प्‍याज के साथ
रोटियां हलफ के नीचे उतारी जाने लगीं। बड़े-बड़े डिब्‍बों में पानी साथ था
उनके। कुछ देर बाद बीड़ी की बदबू या खुशबू से पूरी बोगी तर थी। एक दो ने तो
गाना गाना भी शुरू कर दिया था। हर स्‍टेशन पर कुछ लोग चढ़ते जाते थे। भारत की
जनसंख्‍या की तरह बोगी में भीड़ बढ़ती जा रही थी। तभी वह आफत आई। एक स्‍टेश्‍न
पर गाड़ी रुकी तो एक साथ उस बोगी में कालेज में पढ़ने वाले दस-पंद्ह लड़के सवार
हो गए। गाड़ी चल दी। मुझे समझ में नहीं आया। बोगी में क्‍यों भूचाल आ गया।
लड़कों ने सुनाया- साले बिहारियों तुम्‍हें शर्म नहीं आती सीट पर बैठे हो और
तुम्‍हारे बाप खड़े हैं? एक मजदूर ने सिर्फ इतना ही कहा- सीट हम लोग का है।
इसके बाद तो सबने उसकी लात घूसों से पिटाई शुरू कर दी। एक दो मजदूर उसे बचाने
के लिए आगे बढ़े उनकी भी पिटाई हुई। साथ में स्‍टेनगन की गोलियों की तरह एक साथ
कई मुंह से गालियों की बौछार हुई। सभी बिहारी ढेर हो गए। विजयी भाव से एक-एक कर
सारे मजदूर सीट से बेदखल कराए गए। खुद बैठने के बाद बाकी बची उनकी सीट साफ
कपड़े पहने लोगों को दी गई। शायद गैर बिहारी होने का उनकी नजर में यही पैमाना
था। मेरे कपड़े साफ थे। इसी वजह से मुझे सीट से उन्‍होंने बेदखल नहीं किया था।
साफ कपड़ों की वजह से मेरे ऊपर बिहारी होने का कथित दाग उन्‍हें नजर नहीं आया
था। तीन-चार स्‍टेशन गुजरने के बाद सभी छात्र उस गाड़ी से उतर गएं लेकिन मैं
उनका प्रतिकार नहीं कर सका इसका बोझ मै अपने मन से अब तक नहीं उतार पाया। लगता
है मुझे प्रतिकार करना चाहिए था नहीं तो आने वाले दिनों में हर प्रदेश कश्‍मीर
हो जाएगा। अमन पसंद जनता अपने ही देश में शरणार्थी शिविरों में रहने को बाध्‍य
हो जाएगी कश्‍मीरी पंडितों की तरह।

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