चुप्पी की पीड़ा
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अंबिया की डारी के मंजर सहम गए
हाथो में पत्थर उठाए हुए हैं
अबकी ये फागुन का रंग ऐसा आया
अंग वो मिलाए दिल छुपाए हुए हैं
आंखों के पानी मे अरमां के रंग घोल
दर पे नजर को गडाए हुए हैं
नज्म भी अधूरी रही बोल भी अधूरे
ऐसे वो मुंह लटकाए हुए हैं
होलिका सा बरस भर जलाए जो तन मन
रंगों की आशा बंधाए हुए हैं
बन के किसान जिन्हें करनी थी खेती
बैलों का चारा छुपाए हुए हैं
हाल में हैं लाए कई वैसाख नंदन वो
फागुन में एड लगाए हुए हैं
दूध मलाई खाएं बनके वो चेतक
जो धोबी के घर से भगाए हुए हैं
जुबां पर है ताला न छिने निवाला
रामनाथ परदेश बुलाए हुए हैं
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